Friday, May 17, 2013

बेहतर होगा


जो गिरहें खुल चुकी है, क्या उन्हें बार- बार गांठना ठीक है?
या बेहतर होगा उन्हें बंधन से रिहा कर देना
जो डोर छूट चुकी है, क्या उसकी ओर लपकना ठीक है?
या बेहतर होगा अपने पैरों तले की ज़मीन को पकडे रखना
आसां नहीं है एक नया आसमान तलाश्ना
या सूखी रेत से एक छत तामीर करना
लेकिन जो टीले ढेह चुके हैं, क्या उनकी मिटटी समेटना ठीक है?
या बेहतर होगा धुप और बारिश से समझौता कर लेना
मुमकिन नहीं है गुज़रे पल को एक नयी शक्ल देना
या आने वाले कल को शीशे में उतार लेना
लेकिन वो जिसे तकदीर कहते हैं, क्या उस से रूठ के बैठना ठीक है?
या बेहतर होगा अपने हिस्से के पलों से एक ज़िन्दगी खड़ी करना

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